रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव अपने पिछले पांच वर्षों के कार्यकाल के दौरान लगातार रेलवे में कर्मचारियों की छंटनी और भारतीय रेल के निजीकरण से इंकार करते रहे हैं. यही बात उन्होंने 13 फरवरी को अंतरिम रेल बजट प्रस्तुत करते हुए भी कही कि मंदी के चलते जहां निजी क्षेत्र में कर्मचारियों एवं उनके वेतन में कटौती (छंटनी) की जा रही है, वहीं रेलवे में ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं लागू होगी. परंतु सच्चाई यह है कि रेल मंत्री रेल कर्मचारियों एवं देश की जनता को मूर्ख बनाते रहे हैं क्योंकि यह प्रक्रिया तो पांचवे वेतन आयोग के समय से ही चल रही है, जिसमें सालाना 3 प्रतिशत स्टाफ कटौती लागू की गई थी, जो कि वास्तव में 10 फीसदी तक हो रही है. इसमें छठवें वेतन आयोग की सिफारिशों ने आग में घी का काम किया है।
छठवें वेतन आयोग की सिफारिशें विवादास्पद राकेश मोहन कमेटी की सिफारिशों की फोटो प्रति हैं, जिसमें भा.रे. के निगमीकरण की पुरजोर सिफारिशें की गई थीं. हालांकि केंद्र सरकार ने तब भारी विवाद के चलते राकेश मोहन कमेटी की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया था, परंतु उसकी सिफारिशों को किसी न किसी स्तर पर लगातार अमल में लाया जा रहा है. एक तरफ केंद्र सरकार और रेल मंत्रालय राकेश मोहन कमेटी की सिफारिशों को रद्द करने की बात करता है तो दूसरी तरफ अरबों डॉलर का कर्ज लेने के लिए एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) जैसी विदेशी वित्तीय संस्थाओं के साथ स्टाफ की कटौती और निगमीकरण की शर्तें मानकर समझौता किया गया है.
यह एक सच्चाई है कि एडीबी ने वर्ष 2004-05 में भारत सरकार को अरबों डॉलर का कर्ज इसी शर्त पर दिया है कि वर्ष 2010 तक रेलवे को अपनी स्टाफ संख्या घटाकर आधी यानी 8 लाख तक करनी है और रेल गाडिय़ां चलाने को छोड़कर इसकी अन्य सभी साइड सर्विसेस का निगमीकरण करना होगा. इन शर्तों के अमल पर नजर रखने के लिए एडीबी द्वारा अपनी तरफ से भारतीय क्रेडिट रेटिंग संस्था 'क्रिसिल' को नियुक्त किया गया है. इन सब बातों को उसी समय तत्काल 'रेलवे समाचार' ने उजागर किया था. इन्हीं के शर्तों परिणामस्वरूप वर्ष 2005-06 में भारत सरकार एवं रेल मंत्रालय द्वारा नई पेंशन योजना को भी इसीलिए राष्ट्रपति के अनुमोदन से जारी किया गया था. यह योजना भी भा.रे. के निगमीकरण की दीर्घावधि योजना का ही एक हिस्सा है.
सरकार की इन सब छिपी हुई योजनाओं का सर्वाधिक दुष्परिणाम क्लेरिकल कैटेगरी को होने वाला है, क्योंकि एक तो उनका कोई गॉड फादर नहीं है, दूसरे कार्यालयीन आधुनिकीकरण की मार सबसे ज्यादा उनके ही जॉब पर पड़ रही है. अन्य कैटेगरी भी इससे प्रभावित हो रही हैं, मगर कम. इस बारे में वर्ष 2007 में 'क्लर्कों की नौकरी खतरे में' और वर्ष 2008 में 'वेतन आयोग की भूल भुलैय्या' तथा 'भारतीय रेल का निगमीकरण और घटता मैन पावर' (दि. 16 से 30 अप्रैल 2008) आदि शीर्षकों से 'रेलवे समाचार' ने लगातार विस्तार से इस मामले से रेल कर्मचारियों-अधिकारियों को अवगत कराया था.
रेलकर्मी अपने काम के प्रति सजग हैं और सक्रिय भी, मगर उनमें जागरूकता एवं एकजुटता का भारी अभाव है. उनकी इसी गफलत का फायदा रेल प्रशासन एवं मान्यताप्राप्त रेल संगठनों द्वारा उठाया जा रहा है. इससे प्रशासन 'पिक एंड चूज' की तर्ज पर उन्हें 'पिक एंड थ्रो' कर रहा है और रेल संगठन कुछ नहीं कर पा रहे हैं.
इस बात का एक ज्वलंत उदाहरण यह है कि करीब एक महीने पहले पनवेल में एक बेलास्ट सप्लायर द्वारा एक पीडब्ल्यूएस को बुरी तरह पीट दिया गया. पुलिस और आरपीएफ में इसकी शिकायत भी दर्ज हुई है. रेल संगठनों ने इस मामले को डीआरएम/जीएम तक भी उठाया है. परंतु म.रे. प्रशासन ने अब तक उक्त सप्लायर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है. बल्कि प्रशासन यह कह रहा है कि यदि उक्त कांट्रैक्टर/सप्लायर को ब्लैक लिस्ट कर दिया जाएगा तो मंडल का काम प्रभावित होगा. यानी भारत सरकार के ऑन ड्यूटी कर्मचारी को कोई भी गुंडा-मवाली सरेआम पीट सकता है. जो कि वास्तव में देखा जाए तो भारत सरकार/राष्ट्रपति की पिटाई या बेइज्जती है. परंतु स्थानीय रेल प्रशान इतना नपुंसक हो गया है कि वह राष्ट्रपति (अपने नियोक्ता) की गरिमा को भी भूल गया है. ऐसी ही कुछ स्थिति मान्यताप्राप्त संगठनों की भी इस मामले में हैं, जो प्रशासन पर कोई दबाव नहीं बना पाए हैं, जबकि उनके मामूली पदाधिकारी भी अपने चहेतों, जिनसे वे एक 'समझौता' कर चुके होते हैं, को लाभ दिलाने के लिए अधिकारियों के खिलाफ बोर्ड लगाने से लेकर धरना मोर्चा करने तक उतारु हो जाते हैं.
इस तरह अब सामान्य रेल कर्मचारी का कोई माई-बाप नहीं रह गया है. अब इस घटना के बाद निचले स्तर का कोई भी कर्मचारी अपने सीनियर के आदेशों को मानने और उन पर अमल करने से इंकार कर दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. कल्पना की जा सकती है कि तब प्रशासन की क्या स्थिति होगी? बहरहाल मान्यता प्राप्त संगठनों को भी वर्ष 2004-05 में ही इस बात की आशंका हो गई थी कि क्लेरिकल कैटेगरी पर गाज गिरेगी. उन्होंने इस मुद्दे पर अपने-अपने स्तर से विरोध भी दर्ज कराया था. परंतु उनका यह विरोध मात्र औपचारिकता ही कहा जाएगा, क्योंकि न तो प्रशासन पर उनके इस विरोध का कोई प्रभाव पड़ा न ही बाद में इन संगठनों ने इस मुद्दे को पुन: उठाया.
अब गत वर्ष सितंबर 2008 में छठवां वेतन आयोग लागू करने की घोषणा केंद्र सरकार ने भावी चुनावी फायदे के मद्देनजर कर दी, जो कि वर्तमान में चल रहे हैं. इस वेतन आयोग का सभी सरकारी कर्मचारी संगठनों ने विरोध किया था. मगर अंतत: स्वीकार कर लिया, क्योंकि एक तरफ विश्वव्यापी मंदी चल रही थी/है और दूसरी तरफ वर्तमान केंद्र सरकार के कार्यकाल की अवधि भी पूरी हो रही थी. वेतन आयोग को अस्वीकार करने की स्थिति में इसके लिए नई सरकार और कम से कम एक-दो साल और इंतजार करना पड़ सकता था, जोकि पहले ही 11 साल बाद मिल रहा था. अत: इन सब स्थितियों के मद्देनजर केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों एवं उनके संगठनों ने, मजबूरीवश ही सही, छठवें वेतन आयोग को स्वीकार करने में ही अपनी भलाई समझी थी.
छठवें वेतन आयोग की कई सिफारिशें न सिर्फ अत्यंत क्रूर हैं बल्कि राकेश मोहन कमेटी के उद्देश्यों को पूरा कर रही हैं. जैसे जिन कर्मचारियों की सर्विस बीस साल से कम है, मगर 15 साल पूरी हो गई है, उन्हें 80 महीनों (6 साल 8 माह) का वेतन देकर घर भेज दिया जाए. नॉन सीजीएचएस एरिया में रहने वाले रिटायर्ड/पेंशनर्स कर्मचारियों के लिए एक बीमा योजना जारी कर देना जो ओपीडी की जरूरतों को ही पूरा करते हों. इस योजना को उस समय तो सरकार ने ठंडे बस्ते में रखा था, परंतु वर्ष 2009 की शुरुआत में इसे भी निकालकर कुछ हेरफेर के साथ राष्ट्रपति के अनुमोदन और डीओपीटी के सहयोग से जारी (नोटिफाई) कर दिया है. इस योजना के तहत मेडिकली डिकैटेगराइज एवं कथित सरप्लस स्टाफ को अनिवार्य रूप से घर भेजने की सिफारिश की गई है. 'रेलवे समाचार' ने अपने पिछले अंक में इस पूरी योजना को प्रस्तुत किया है. गत माह केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने एक ज्ञापन (मेमोरेंडम) जारी किया है, जिसमें सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों को बीमा कंपनी अथवा सरकार द्वारा सीजीएचएस के अंतर्गत पूरे मेडिकल खर्चों की भरपाई किए जाने की बात कही गई है.
अब जब पूरे देश में संसदीय आम चुनाव की सरगर्मी पूरी तेजी पर है, तब केंद्रीय वित्त मंत्रालय, कार्मिक एवं पेंशन मंत्रालय तथा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालयों द्वारा इन कर्मचारी विरोधी नीतियों को चुपचाप लागू करने की कोशिश की जा रही है और इन पर बड़े-बड़े फायदे दर्शाने वाले लेख कुछ पत्रकारों से विभिन्न बड़े भाषाई अखबारों में आजकल लगातार लिखवाये जा रहे हैं. चूंकि इन नीतियों का विरोध ही ज्यादा होता है और इससे कमरचारी वर्ग को फायदे का लालच नहीं प्रदर्शित होता है, इसलिए चुनाव आयोग भी ऐसी नीतियों को चुनावी माहौल में लागू करने से कतई ऐतराज नहीं कर रहा है. कोई विरोधी पक्ष भी चुनाव आयोग का ध्यान नहीं दिला रहा है.
सच्चाई यह है कि चुनाव आयोग की मूक सहमति अथवा उसे विश्वास में लेकर ही सरकार ने इन नीतियों पर अमल किया होगा. अन्यथा किसी के ध्यान दिलाये बिना भी नई पेंशन योजना और उससे मिलने वाले फायदों पर बड़े-बड़े अखबारों में प्रकाशित हो रहे बड़े-बड़े आलेखों पर स्वयं चुनाव आयोग की नजर जानी चाहिए थी. अब जो कामचलाऊ सरकार चुनावी माहौल का फायदा उठाकर कर्मचारी विरोधी नीतियां लागू कर सकती है, वह चुनाव के बाद सत्ता में आने पर क्या-क्या करेगी, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है.
छठवें वेतन आयोग द्वारा सरकारी कर्मचारियों के वेतनमानों पर निर्णय लेते समय कुछ कैटेगरियों के कर्मचारियों को चैप्टर 7.36.95 (पृष्ठ 535) के अंतर्गत उन्हें कॉमन कैटेगरी मानकर उनके लिए कॉमन सिफारिशें की गई हंै. इस कॉमन कैटेगरी में टेलीफोन एवं लिफ्ट ऑपरेटर्स, कैशियर्स, नर्सिंग स्टाफ, टीचर्स, टाइपिस्ट एवं स्टेनोग्राफर्स, राजभाषा स्टाफ, कैंटीन स्टाफ और पैरामेडिकल स्टाफ शामिल किया गया है. भले ही 6वें वेतन आयोग ने उपरोक्त कैटेगरियों को कॉमन मानकर समान वेतनमान और भत्ते दिए जाने की सिफारिश की है परंतु रेलवे बोर्ड ने नर्सों एवं टीचरों को ग्रेड पे 5300 देकर उन्हें जूनियर स्केल असिस्टेंट अफसरों (ग्रेड पे 4800 रु.) से ऊपर कर दिया है. इससे न सिर्फ असिस्टेंट अफसर नाराज हैं बल्कि कॉमन कैटेगरी में शामिल अन्य सभी स्टाफ में इसके प्रति भारी नाराजगी देखी जा सकती है. उनमें यह आशंका पैदा होना स्वाभाविक है कि क्या उन्हें अब मल्टी स्किलिंग के अंतर्गत दूसरे काम भी करने पड़ेंगे अथवा इस तरह उन्हें स्पेयर/सरप्लस करके घर भेजे जाने की कुटिल कोशिश रेलवे बोर्ड द्वारा की जा रही है?
6वें वेतन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में चैप्टर 3.1.15, पृष्ठ 164 पर यह भी सिफारिश की है कि फील्ड कार्यालयों में मिनिस्टीरियल एवं स्टेनोग्राफर्स की नियुक्ति पर तुरंत रोक लगा दी जाए. ज्ञातव्य है कि इन कार्यालयों से टाइपिस्ट की पोस्टों को पहले ही खत्म किया जा चुका है. आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि वेतनमान 6500-10,500 के पदों पर 50 फीसदी नियुक्तियां ओपन मार्केट से डायरेक्ट इस शर्त के साथ की जानी चाहिए कि उनके पास एक साल का कम्प्यूटर डिप्लोमा/सर्टिफिकेट हो और वे ग्रेजुएट हों. इस सिफारिश में यह भी कहा गया है कि जो कर्मचारी वर्तमान में मिनिस्टीरियल स्टाफ और स्टेनोग्राफर के पदों पर कार्यरत हैं उन्हें 'डिस्टेंट कैडर' मानकर तब तक इन पदों पर रखा जाए, जब तक कि सरकार द्वारा उनके कार्यों का सही आकलन करके उन्हें किसी अन्य यूनीफाइड कैडर में रिडिप्लॉयमेंट नहीं कर दिया जाता. उपरोक्त सिफारिशों और केंद्र सरकार के रवैये को देखते हुए कॉमन कैटेगरी में डाले गए स्टाफ का अपनी नौकरी के प्रति आशंकित होना स्वाभाविक है.
जब उनकी इस आशंका को बढ़ाने का काम भी रेल प्रशासन द्वारा किया जा रहा हो तो उनका यह डर और बढ़ जाता है, क्योंकि छोटी-छोटी गलतियों के लिए विभागीय कार्रवाई (डीएआर) और विजिलेंस के माध्यम से कड़ा दंड देकर उन्हें न सिर्फ परेशान और उत्पीडि़त किया जा रहा है बल्कि इन माध्यमों से भी अधिकांश स्टाफ की छंटनी को अंजाम दिया जा रहा है. इससे उत्पीडि़त काफी स्टाफ वीआरएस की मांग रहा है जो कि प्रशासन का उद्देश्य है.
उपरोक्त तमाम स्थितियों के मद्देनजर रेलकर्मियों में यह आशंका बलवती हो रही है कि 6वें वेतन आयोग की सिफारिशों की आड़ में रेल मंत्रालय और भारत सरकार द्वारा डॉ. राकेश मोहन कमेटी की सिफारिशों पर चुपचाप अमल किया जा रहा है, जिससे भारतीय रेल को कई निगमों (कार्पोरेशंस) में बांटकर इसके संपूर्ण निजीकरण का रास्ता साफ हो सके।
6वें वेतन आयोग की सिफारिशों और भारत सरकार एवं रेल मंत्रालय द्वारा अपनाई जा रही नीतियों का कुल लब्बो-लुआब यही है कि एडीबी की शर्तों पर वर्ष 2010 तक अमल करना है और भा.रे. में मैन पावर की संख्या को 50 प्रतिशत तक घटाना है. यहां यह कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इसी वजह से सरकार द्वारा निगमीकरण को बढ़ावा देने के लिए ही वेतन आयोग की सिफारिशों से ज्यादा वेतन निगमों के स्टाफ को दिया गया है. सरकार की इन तमाम नीतियों के चलते यह कहना शायद जल्दबाजी नहीं होगी कि वर्ष 2010 के अंत तक एडीबी की शर्तों को पूरा करते हुए भा.रे. में सिर्फ 8 लाख कर्मचारी-अधिकारी रह जाएंगे.
उल्लेखनीय है कि कर्मचारियों की छंटनी या स्टाफ का कम किया जाना सरकारी उद्यमों के निजीकरण-निगमीकरण के रास्ते पर उठा अंतिम कदम माना जाता है, क्योंकि इससे पहले सरकार द्वारा अपने उद्यमों को 'बीमार' करने के सारे कदम उठाए जा चुके होते हैं. अब रेलवे बोर्ड सहित सभी जोनल रेलों के प्रशासनों द्वारा इस प्रक्रिया में सरकार को अपना भरपूर योगदान दिया जा रहा है. इसीलिए रेलकर्मियों को सतर्कतापूर्वक अपने भविष्य की प्लानिंग शुरू कर देनी चाहिए. ---'रेलवे समाचार'
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